एक विदेशी लेखक है, उसके उपन्यास शुरू ही होते है गहरे अवसाद से। इतना गहरा अवसाद कि आप दो - तीन पन्ने फाड़कर निचोड़ दें तो मवाद टपकने लगे । चार लाइने पढ़ने के बाद आपको लग सकता है कि इसे उठाकर फेंक दें। इतनी नकारात्मकता आप क्यूँ झेले ? होगा दुनिया का महान लेखक, तो बना रहे । आपकी बात ठीक भी है। लेकिन यकीन जानिये लेखक जीवन का विरोधी नहीं है। बल्कि वो तो कहता है वो जीवन को मानने वालो में से है। जीवन की नश्वरता को जानकार जियो। कुछ ऐसी बात तो गीता भी कहती है। कौन मरा है ? और कौन मार सकता है ? तुमने न तो कभी जन्म लिया है और न ही कभी तुम्हारी मृत्यु हुई है । तुम पहले भी थे और आज भी हो और हमेशा से रहोगे। थोड़ी मुश्किल होती है लेकिन शुरुआत में जो उसे खुद को जोड़ सका उससे. वो अंत तक रुकेगा नहीं. एक पाठक के तौर पर मैं सोचता हूँ कि कहीं लेखक ऐसा जान - बूझकर तो नहीं करता ? क्या वो पाठक की क्षमता का इम्तिहान लेता है ? [ उस लेखक का नाम नहीं लिख रहा हूँ. जिन्होंने उसे पढ़ा है वो समझ ही जायेंगे. ]
Posted on: Thu, 18 Jul 2013 05:58:06 +0000
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