आईये अपनी पहचान बनाएं: - TopicsExpress



          

आईये अपनी पहचान बनाएं: 3 (अमर ज्योति के मार्च 2011 अंक में प्रकाशित) किसी भी मनुष्य, समुदाय, धर्म अथवा समाज के स्वरुप निर्धारण में वर्तमान परिस्थितियों के अतिरिक्त जिस चीज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है वह है उसका इतिहास. अतीत में घटित घटनाएँ ही हमारी वर्तमान परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होती है व इन्ही घटनाओं को शाब्दिक रूप से इतिहास कहा जाता है. क्या हमारा इतिहास हमारे वर्तमान अस्तित्व व भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है? इस प्रश्न का उत्तर वह व्यक्ति बेहतर दे सकता है जिसने अपनी स्मरण-शक्ति खो दी हो, क्योंकि मानव अस्तित्व स्व-इतिहास की अज्ञानता में अर्थहीन है. इतिहास ही वह द्वार है जिससे हम व भावी पीढियां अतीत में झांक पाती हैं. इतिहास हमारा मार्गदर्शन करता है, हमें सिखाता है व हमारे क्रमिक-विकास (Evolution) पर प्रकाश डालता है. सभ्यताओं से होती हुई मानवता की अनवरत यात्रा केवल मात्र इतिहास के द्वारा ही वर्णित होती है. किन्तु इतिहास के साथ एक बड़ी असुविधा यह है की ससमय निबंधन (Timely documentation) के अभाव में इसका लोप हो जाता है व प्राय: यह लोप अपरीवर्त्य (Irreversible extinction) होता है. एक स्वर्णिम इतिहास वर्तमान व भावी पीढ़ियों के लिए गर्व का स्रोत होता है. किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के अस्तित्व व विकास के लिए इतिहास की महत्वपूर्णता और अधिक बढ़ जाती है. ऐसा मत है की धर्म एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना (A socio-cultural phenomenon) है, अत: धर्म का इतिहास समाज व संस्कृति का इतिहास होता है. सामान्यत: कोई भी धर्म विशेष सरल से जटिल रूप में विकास को प्राप्त होता है व यही जटिलता उक्त धर्म विशेष के विभिन्न सम्प्रदायों अथवा मतों में विभक्तिकरण (Sectorial division of religions) का कारण बनती है. वस्तुत: यह विभक्तिकरण कालांतर में धर्मों में उत्पन्न जटिलता को कम करने का प्राकृतिक उपक्रम है. इस प्रकार किसी भी धर्म का विकास-चक्र सरलता, जटिलता एंव विभक्तिकरण के तीन चरणों की क्रमश: पुनरावृति से चलता रहता है. विश्व के विभिन्न भागों में विकसित कई अवधारणाए यह स्पष्टत: प्रतिपादित करती हैं की आदि धर्म (Primordial religion) प्रकृतिवाद (Naturalism) से आरम्भ हुआ. यदि यह सत्य है तो सैधांतिक रूप से बिश्नोइज्म विश्व का प्रथम धर्म है क्योंकि प्रकृति को बिश्नोइज्म में उच्चतम स्थान प्राप्त है. अब प्रश्न यह उठता है की विश्व के प्रथम धर्म को मानने व जानने वाले अल्पसंख्या में क्यों है? क्या ऐसा इस महान धार्मिक विचारधारा के गौरवमयी इतिहास के उपयुक्त निबंधन (Non-documentation of history) के आभाव के कारण है? बिश्नोइज्म की वर्तमान स्थिति हमें लिखित इतिहास की शक्ति (The power of written history) को समझने व इस विषय में धरातल स्तर पर कुछ ठोस करने का संकेत देती है. क्योंकि यदि आप अपने इतिहास के बारे में पर्याप्त नही जानते तो स्वंय को प्राप्त कर सकने योग्य उद्देश्यों को भी न प्राप्त करने के जोखिम में डालते हैं (Non achievement of what is easily achievable). यदि हमें नही पता की इतिहास में घटनाएँ कैसे घटित हुई थी तो हम कदापि नही समझ पातें हैं की वर्तमान में चीजें जैसी हैं वैसी क्यों है? वर्तमान परिस्थितियों को बेहतर समझने व भविष्य के लिए अधिकतम लाभ लेने के लिए (Understanding the present for exploitation of future) हमें अतीत के अध्ययन की परम आवश्यकता है. हमें समझना होगा की हमारे द्वारा किये गये कार्य ही भावी पीढ़ियों का इतिहास होगा तथा यही कार्य उन पीढ़ियों के भविष्य को आकर देगा. बिश्नोइज्म की 525 वर्षों की यात्रा के साथ ही हम एक गौरवशाली इतिहास के उत्तराधिकारी हैं. यह सजीव इतिहास स्वयं में विल्होजी जी जैसे पुनरुत्थान आदि पुरुष तथा समाज सुधारक, ऊधो जी, केशो जी, परमानन्द जी बणीयाल, जैसे असंख्य महान किन्तु अज्ञात कवि एंव लेखक, प्रकृति के अमर शहीदों की असंख्य बलिदान गाथाएं, स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी आन्दोलन, महान पलायन (Great migrations) इत्यादि समावेशित किये हुए है. सार यह है की जब इतिहास के सभी आवश्यक घटक बिश्नोई इतिहास में विद्यमान है तो क्यों न वैज्ञानिक अनुसन्धान पद्धति के द्वारा इसका निबंधन (Documentation through scientific research methodology) किया जाये? समय का स्पष्ट संकेत है की बिश्नोई इतिहास अब आकार ले एंव इसका भी एक सुस्पष्ट चेहरा बने. यदि हम वर्तमान पीढ़ी के लोग अकर्मण्य रहे तो भावी बिश्नोई उतने गौरवान्वित नही अनुभव कर पाएंगे जितना हम करते हैं. हमारे गर्व का स्रोत हमारा इतिहास ही है जो अब तक हमें मौखिक रूप (History in verbal form) में उपलब्ध होता आया है. मौखिक इतिहास (Verbal history) की आयु अल्प होती है व अल्पकाल में ही या तो यह लुप्त हो जाता है या तो इसमें विकृतियाँ प्रवेश पा जाती है. जहाँ तक बिश्नोई इतिहास पर हुए मौलिक अनुसन्धान कार्य (Research work of fundamental nature) का प्रश्न है तो कोई भी कार्य जो हमारा सम्पूर्ण इतिहास, कर्मिक विकास अथवा दर्शन (History, evolution or philosophy) वर्णित करता हो, नही हुआ है. यद्यपि बिश्नोई इतिहास व दर्शन का एक अत्यंत ही लघु किन्तु निसंदेह प्रशंसनीय भाग डॉ हीरालाल माहेश्वरी कृत जाम्भोजी, बिश्नोई सम्प्रदाय और साहित्य नामक ‘मास्टरपीस’ में निबंधित हुआ है. यह कृति हर प्रकार से सम्मानित किये जाने की अधिकारी है. इस अनुसन्धान कार्य की विशेषता न केवल यह है की बिश्नोई इतिहास, दर्शन एंव साहित्य पर प्रकाश डालने वाली यह अनुसंधानात्मक शैली की एकमात्र पुस्तक है अथवा की यह भ्रमण प्रबलित (Travel intensive) कार्य बीसवीं सदी में साठ के दशक में निष्पादित हुआ जब संचार तथा यातायात क्रान्ति नही हुई थी, वरन यह है की यह गहन कार्य एक अबिश्नोई के द्वारा किया गया जिसने इसे पुर्वाग्रहों अथवा दुराग्रहों से दूर रखते हुए तटस्थता व प्रमाणिकता प्रदान की. आधी-शताब्दी व्यतीत हो गयी किन्तु इस स्तर के किसी भी कार्य की पुनरावृति नही हो पाई. बिश्नोइज्म पर लिखित साहित्यिक अथवा अनुसंधानात्मक स्तर की पुस्तकों का सर्वथा अभाव है,जो अत्यंत भयानक प्रतीत होता है. तथापि बिश्नोइज्म से सबंधित सन्दर्भ (References) विभिन्न विषयों पर लिखित देशी व विदेशी प्रकाशनों की पुस्तकों में अवश्य प्रकाशित हुए है. मुख्यत: ये सन्दर्भ पर्यावरण रक्षा के प्रति हमारे समर्पण व सबंधित पारम्परिक ज्ञान (Traditional knowledge) को ही रेखांकित करते है. विचारणीय प्रश्न यह है की क्या एक सन्दर्भ मात्र धार्मिक-पर्यावरणीय क्रान्ति (Eco-religious revolution) बिश्नोइज्म का परिचय देने तथा इसका प्रसार करने में सक्षम है? क्या केवलमात्र पर्यावरण रक्षा के प्रति समर्पण ही बिश्नोइज्म की एकमात्र विशेषता है? मेरे विचार से पर्यावरण रक्षा के प्रति समर्पण बिश्नोइज्म की सागर रूपक विशेषताओं में से केवल एक है व अन्य विशेषताएँ भी उतनी ही महत्वपूर्ण बड़ी, उपयोगी तथा समसामयिक है, आवश्यकता केवल मात्र उन्हें निखारने की है. बिश्नोइज्म पर लिखित लेखांश एंव सन्दर्भों की सूची लम्बी है व एक लेख की संकरी सीमा में इस सूची को समावेशित करना दुष्कर है. कुछ महत्वपूर्ण उदाहरणों में ‘न्यू साइंटिस्ट’ (New Scientist) पत्रिका में 17 दिसंबर 1988 के अंक में माईकल डगलस द्वारा लिखित लेख ‘डेजर्ट सर्वाइवल बाई द बुक’ (Desert survival by the book) में बिश्नोई समुदाय द्वारा प्रतिकूल मरुस्थल में उन्नतीस नियमों का पालन करके खुशहाल जीवन जीने का चित्रण किया गया है. यही लेखक अपने एक अन्य अति लोकप्रिय लेख ‘वॉइस ऑफ़ द प्लेनेट’ (Voice of the planet) में भी बिश्नोई समुदाय के कुशल पारम्परिक ज्ञान का सहृदय उल्लेख करता है. ऐन्थ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (Anthropological survey of India) की ‘पीपुल ऑफ़ इडिया’ परियोजना(People of India project) के अंतर्गत प्रकाशित तथा के. एस. सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘पीपुल ऑफ़ इंडिया’ (People of India) में बिश्नोई समुदाय के बारे में लिखित कई बाते न केवल कपोल कल्पित, मनगढ़ंत, असत्य व हास्यास्पद है वरन लेखक की लेखन जैसी गंभीर विषय वास्तु को अत्यंत ही हल्के रूप में लेने की वृति को भी उजागर करती है. इतने उच्च स्तर पर ऐसी गहन लापरवाही चिंता व दुःख का विषय है. इससे भी अधिक दुखद बिश्नोई समुदाय की किसी भी संस्था अथवा व्यक्ति के द्वारा इस पर कोई प्रतिक्रिया न देना है. इससे विपरीत वर्ष 2004 में प्रकाशित पुस्तक ‘द न्यू फेस ऑफ़ एनवायरनमेंटल मैनेजमेंट इन इंडिया’ (The new face of environmental management in India) में लेखिका अपर्णा साने ने बिश्नोई समुदाय की गणना विश्व में पर्यावरण संरक्षण तथा प्रबंधन के नये चेहरों में की है. यह निश्चित ही एक उत्साह वर्धक टिपण्णी है. इसी प्रकार सन 2006 में प्रकाशित ‘कल्चर इकोलॉजी एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ (Culture ecology and sustainable development) नामक पुस्तक में लेखक सुशांत कुमार चौधरी पारिस्थितिकी (Ecology) तथा समावेशी विकास (Sustainable development) जैसे वैज्ञानिक विषय को धर्म व सभ्यता के दायरे में ले जाते हुए बिश्नोइज्म की वैज्ञानिक सटीकता को स्वीकार करते हैं व लिखते हैं, ‘बिश्नोइज्म उस व्यक्ति की कीमत पहचानता है जो उन्नतीस नियमों को आत्मसात करता है व उन्हें भावी पीढ़ियों में स्थानांतरित कर देता है.’ 19 से 21 जून 2008 को ट्युनिसिया में आयोजित ‘द फ्यूचर ऑफ़ ड्राई लैंड्स: इंटरनेशनल साइंटिफिक कांफ्रेंस आन डेजर्टीफिकेशन एंड ड्राई लैंड्स रिसर्च’ (The future of drylands: International scientific conference on desertification and dryland research) जैसे उच्चतम वैज्ञानिक मंच पर भी पारम्परिक ज्ञान के द्वारा थार मरुस्थल में प्राकृतिक संसाधनों के कुशल प्रबंधन (Efficient management of natural resources) के विषय में बिश्नोई समुदाय को विद्वत वैज्ञानिक समुदाय के द्वारा प्रशंसा प्राप्त हुई. अन्य महत्वपूर्ण उदाहरणों में ‘कल्चरल जियोग्राफी, फॉर्म एंड प्रोसेस’ (Cultural geography: Form and process) नामक ग्रन्थ में एम.एच, कुरैशी तथा सुरेश कुमार द्वारा लिखित लेख ‘कंजर्वेशन प्रक्टिसीज एंड रेलिजिअस इडीयोम: ए केस स्टडी ऑफ़ बिश्नोइज ऑफ़ इंडिया’ (Conservation practices & religious idiom: A case study of Bishnois of India) में यह स्पष्ट किया गया है की कैसे बिश्नोई समुदाय के पास अद्वितीय संरक्षण पद्धतियाँ हैं (Conservation methods) व कैसे विश्व बिश्नोइज्म से शिक्षा प्राप्त कर सकता है? उपर वर्णित विभिन्न पुस्तकों से उद्धृत सन्दर्भ, यद्यपि, बिश्नोइज्म का संक्षिप्त आभासमात्र ही करवा पाते हैं तथापि ये इसके विलक्षण इतिहास, दर्शन, जीवन मूल्यों तथा पारम्परिक ज्ञान एंव बौधिक कौशल को भी प्रतिबिम्बित करते है. बिश्नोई दर्शन (Bishnoi philosophy) का स्तर अत्यंत ही व्यापक है किन्तु गंभीर अनुसन्धान की कमी से यह केवल उन्नतीस नियमों तक सिमट कर रह गया है. यदि हम चाहते हैं की बिश्नोइज्म की एक वैश्विक पहचान (Global identity) बनें और हम बिश्नोईयों से परिचय देते समय न पूछा जाये की ‘बिश्नोई क्या होते हैं?’ तो हमें हमारे इतिहास का निबंधन सुनिश्चित करना होगा. बिश्नोइज्म के समग्र इतिहास निबंधन के इस कालजयी कार्य के लिए बिश्नोइज्म के प्रत्येक अनुयायी एंव संस्था की प्रतिभागिता सुनिश्चित करनी होगी. सर्वविदित व सर्वमान्य रूप से अखिल भारतीय बिश्नोई महासभा, मुकाम, बिश्नोइज्म की सर्वोच्च संस्था है. महासभा बिश्नोई-इतिहास के निबंधन की दिशा में निर्णायक कदम उठा सकती है. यह विभिन्न विश्वविद्यलयों के साथ ‘अनुसंधान सहयोग समझौता’ (Memorandum of understanding) कर सकती है. श्री गुरु जम्भेश्वर इतिहास छात्रवृति (Shri Guru Jambheshwar history scholarship) का गठन करके बिश्नोई इतिहास के गहन अध्ययन, अनुसन्धान एंव निबंधन को साकार रूप प्रदान किया जा सकता है. महासभा निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान रख कर अनुसन्धान सहयोग समझौता को अंतिम रूप दे सकती है: 1. श्री गुरु जम्भेश्वर इतिहास छात्रवृति के लिये उम्मीदवार का इतिहास विषय से प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर (Post graduation in History) होना आवश्यक होना चाहिए. 2. यह छात्रवृति उम्मीदवार की पी.एच.डी. (Ph.D.) डीग्री में परिलक्षित होनी चाहिए. 3. छात्रवृति की मासिक देय राशी अर्थ की उपलब्धता के आधार पर निर्धारित की जा सकती है. वर्तमान में अधिकांश संस्थाओं में यह राशी 12000 रूपये (असंशोधित) मासिक है. 4. तय उद्देश्यों की प्राप्ति तक ऐसी न्यूनतम तीन छात्रवृतियां वार्षिक रूप से प्रदान की जा सकती है. 5. श्री गुरु जम्भेश्वर इतिहास छात्रवृति की अवधि तीन वर्ष निर्धारित की जा सकती है. 6. अनुसन्धान का विषय व इसके लक्ष्य या तो प्रत्यक्ष रूप से बिश्नोई इतिहास एंव दर्शन से जुड़े हुए होने चाहिए अथवा इनका निर्धारण महासभा के द्वारा किया जाना चाहिए. 7. प्रस्तावित शोध प्रबंध की समाप्ति पर ऐसे तथ्यों का प्रकट होना अवश्यम्भावी होना चाहिए जो बिश्नोई इतिहास एंव दर्शन पर प्रकाश डालते हों. 8. उम्मीदवार का चयन स्थानीय आधार पर आयोजित परीक्षा अथवा महासभा एंव सम्बंधित विश्वविध्यालय के सयुंक्त विशेषज्ञ दल के द्वारा साक्षात्कार के माध्यम से किया जाना चाहिए. 9. प्रस्तावित शोध प्रबंध का सायनोप्सिस सेमीनार (Synopsis seminar) महासभा द्वारा गठित विशेषज्ञ दल के समक्ष प्रस्तुत किया जाना आवश्यक होना चाहिए तथा प्रगति प्रतिवेदन (Progress report) का समय छहमाही अथवा वार्षिक रूप से निर्धारित किया जा सकता है. 10. शोध प्रबंध से प्राप्त आंकड़े, तथ्य तथा थीसिस (Thesis) छात्र, सबंधित विश्वविध्यालय एंव महासभा की सयुंक्त सम्पति होनी चाहिए. 11. श्री गुरु जम्भेश्वर और उनकी अध्यात्मिक अवधारणा, जीवन व शिक्षाएं, तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक स्थिति, सबद वाणी: इतिहास, उत्पत्ति व अर्थ, बिश्नोइज्म: कर्मिक विकास, समकालीन स्थिति, बिश्नोई कवि और काव्य, बिश्नोइज्म का पारम्परिक वैज्ञानिक ज्ञान तथा आधुनिक पर्यावरण संरक्षण एंव प्रबंधन में इसकी संभावनाएं, तुलनात्मक बिश्नोई दर्शन इत्यादि शोध प्रबंधों के विस्तृत विषय हो सकते हैं. इस प्रकार हम साहित्यिक दृष्टि से दृढ बन पाएंगे एंव निबंधित बिश्नोई इतिहास (Documented Bishnoi History) के साथ ही बिश्नोइज्म का भी प्रसार होगा और परिचय देते समय पूछे जाने वाले “बिश्नोई क्या होते हैं” प्रश्न के पूछे जाने की सम्भावना कम हो जाएगी. 12. अंत में, यह अनुसन्धान यदि संभव हो तो ऐसे अनुसन्धानकर्ताओं से करवाया जाना चाहिए जो स्वंय बिश्नोई न हो ताकि इसे समस्त प्रकार के पूर्वाग्रहों अथवा दुराग्रहों से मुक्त रखा जा सके क्योंकि महाकवि परमानन्द जी बणीयाल ने कहा है: आपणपौ न सराहिये पर निंदिये न कोय मात सराहे पूत कूँ लोक न माने सोय संतोष पुनिया
Posted on: Sun, 25 Aug 2013 06:10:03 +0000

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