क्योंकि क़त्ल साबित नहीं हो पाया इसलिए मक़तूल* ने बगावत कर दी. उसने एलान किया जब मेरा क़त्ल हुआ ही नहीं तो मैं मरा भी नहीं. चौराहों पर उसने पोस्टर लगा दिए. मगर किसी ने ध्यान नहीं दिया. पुलिस ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया. अब उसमे अदालत में अपील दायर करनी चाही. मगर अदालत का कहना था कि मुर्दे अपील नहीं कर सकते. कानून इसकी इजाज़त नहीं देता. मक़तूल ने फ़रियाद की. मैं मुर्दा नहीं हूँ क्योंकि अदालत ने कहा है कि मेरा क़त्ल नहीं हुआ. अदालत ने इसे अदालत की तौहीन माना और उसे जेल भेज दिया. मक़तूल जेल में है. उसकी ज़मानत लेने कोई नहीं आया क्योंकि सारे कह रहे है कि यह जेल में हो नहीं सकता. हमने खुद इसका अंतिम संस्कार किया था. एक दिन क़ातिल मकतूल से मिलने आया. मुस्कुराया और वापस चल दिया. जेल के हुक्काम को खतरा लगा. जाने क्यों. उन्होंने मक़तूल को तमाम क़ैदियों से अलग एक नयी जगह बंद कर दिया. मक़तूल ने पाया कि कि नयी जगह सारे मक़तूल हैं. उनकी ज़मानत भी कोई नहीं लेने आया. उन सबसे क़ातिल मिलने आते हैं. मुस्कुराते हैं और चले जाते हैं. ( मक़तूल*: जिसका क़त्ल हुआ हो )
Posted on: Wed, 31 Jul 2013 08:52:51 +0000
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