क्या मैक्समूलर वेद भाष्य - TopicsExpress



          

क्या मैक्समूलर वेद भाष्य करने योग्य था? ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मैक्समूलर को ऋग्वेद का अंग्रेजी में भाष्य करने के लिए यह विश्वास करके चुना कि वह वैदिक संस्कृत का विद्वान है जबकि सच्चाई यह है कि वह न वैदिक संस्कृत जानता था और न अंग्रेजी ही; क्योंकि उसकी मातृभाषा तो जर्मन थी। मैक्समूलर ने स्वयं स्वीकारा है कि इंग्लैंड आने से पहले जब १८४५ में पैरिस में था तो वह भारतीय विद्वान रवीन्द्रनाथ टेगौर के दादा द्वारिकानाथ टेगौर के पास अपनी अंग्रेजी सुधारने के लिए प्रतिदिन उसके होटल में जाया करता था (चौधरी, पृ. ५०); और जब वह लंदन में रहने लगा तो अपनी मकान मालकिन अंग्रेज महिला से बातचीत करते हुए उसे अक्सर कठिनाई होती थी (माईओटो-बायोग्राफी, पृ. ९९, ११६)। इंग्लैंड में आने के बाद में उसने चार वर्ष तक अंग्रेजी सीखी और १८५१ में, क्राइस्ट चर्च कॉलेज, लंदन ने उसे एम.ए. की मानद डिग्री दी (चौधरी, पृ. ५०)। लेकिन लंदन आकर भी उसने संस्कृत नहीं सीखी। मैक्समूलर का वैदिक संस्कृत ज्ञान मूलर न संस्कृत बोल सकता था और न लिख सकता था, केवल लौकिक संस्कृत पढ़ सकता था। इस संदर्भ में निराद चौधरी लिखता है कि १८५४ में नीलकंठ गोरह नामक एक भारतीय ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से मिलने आया और उसने संस्कृत में कुछ प्रश्न किए जिन्हें मूलर न समझ सका और अंग्रेजी में पूछा कि तुम किस भाषा में बोल रहे हो? गोह ने कहा क्या तुम संस्कृत नहीं समझते हो? तो मूलर ने जबाब दिया नहीं मैंने कभी किसी को संस्कृत बोलते नहीं सुना। हम संस्कृत केवल पढ़ते हैं। (वही, पृ. २९२)। इसके ४४ वर्ष बाद भी मैक्समूलर संस्कृत बोलने व लिखने योग्य न हो सका। उसने अपने संस्कृत ज्ञान के बारे में १८९८ में, नेपाल के संस्कृत विद्वान छविलाल को एक पत्र में लिखाः Norhan Gards, Oxford, 28th September, 1898. Pandit Chhavilal, Dear Sir, Accept my best thanks for your Natakas, Sundara Charita and Kushalavodaya, the Vrithalankara, and the Sanskrit verses addressed to me. As soon as I find time I hope to read your two plays, but I am getting so old (75) and have still so much to do, that I have but little leisure left to me. I am surprised at your familiarity with Sanskrit. We, in Europe, shall never be able to rival you in that. We have to read but never to write Sanskrit. To you it seems as easy as English or Latin is to us. You see, we chiefly want to know what INDIA is and has been-we care for its literature, its philosophy, etc., and that takes up so much time, that we never think of practising composition, that we care admire all the more because we cannot rival, and I certainly was filled with admiration when I read but a few pages of your Sundara Charita. And now a question. Mr. Byramji Malabari is publishing at Bombay (India Spectator) translation of my Hibbert Lectures in Marnt/zi, Bengali, Gujarati, Tamil, etc. He is very anxious to find a scholar to translate them into Sanskrit. One translation was made, but it was too imperfect. Would you lmdertake that work? Of course, you would be paid for your trouble. Or could you recommend any friend of yours, who is competent to undertake such a work ? And would you write direct to B. Malabari, India Spectator Office, Bombay, inform him of what oouId be done in Nepal. Thanking you once more for your valuable presents, I remain, yours faithfully-F. Max Muller. (Vritalankar, 1900; Bharti, pp. 93-94) अर्थात्‌ नौरहम गार्डस, ऑक्सफोर्ड, २८ सिमबा, १८९८ : श्रीमान पंडित छविलाल। मेरा हार्दिक धन्यवाद आपने अपने नाटक, सुन्दर चरित और कुद्गालवोदय, वृहद अलंकार और संस्कृत छंद जो मेरे लिए लिखे हैं, मिले। जैसे ही मुझे समय मिलेगा, मुझे आद्गाा है, कि मैं आपके दोनों नाटकों को पढँूगा। लेकिन अब मैं इतना बूढ़ा (७५ वर्ष) हो चला हूँ और काम अभी बहुत बाकी है कि मुझे विश्राम के लिए बहुत थोड़ा समय मिलता है। मुझे आपके संस्कृत ज्ञान पर आश्चर्य है। यूरोप में हम लोग कभी भी इस विषय में आपकी बराबरी नहीं कर सकेंगे। हम को संस्कृत पढ़ना पड़ताहै, परंतु कभी लिखना नहीं पड़ता। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हें संस्कृत ऐसी लगती है जैसी कि हमें अंग्रेजी या लैटिन। तुम ऐसा मानो कि हम मुखयता यह जानना चाहते हैं कि भारत क्या है- और क्या था? हम केवल उसके साहित्य, उसके दर्शन आदि की ओर ध्यान देते हैं और इसी में इतना समय लग जाता है कि हम कभी लिखने व रचना आदि के अभ्यास की सोचते भी नहीं हैं। हम इसलिए आपकी प्रशंसा करते हैं। क्योंकि हम आपकी बराबरी नहीं कर सकते और मैं निश्चय ही आपकी प्रशंसा में प्रफुल्लित हो जाता हूँ, जब भी मैं आपके सुन्दरचरित नाटक के केवल कुछ पन्ने पढ़ता हूँ। अब एक प्रश्न है। मि. बेरामजी मालाबारी बंबई में (इंडिया स्पेक्टेटर) मेरे हिबर्ट लेक्चरों का अनुवाद कराके मराठी, बंगाली, गुजराती, तमिल आदि भाषाओं में छाप रहे हैं। वे एक ऐसे विद्वान के खोजने में अति उत्सुक हैं जो इनका संस्कृत में अनुवाद कर सके। एक ऐसा अनुवाद किया भी गया था, मगर वह संतोषजनक नहीं था। क्या आप इस काम को करना चाहोगे? निःसंदेह इसके लिए आपको पारिश्रमिक दिया जाएगा अथवा क्या आप इसके लिए अपने किसी मित्र की सिफारिश कर सकते हो? और क्या आप सीधे मालाबारी को इंडिया स्पेक्टेटर ऑफिस, बंबई के पते पर लिखेंगे; तथा कुछ नेपाल में किया जा सकता है उसके बारे में सूचित करेंगें? आपका महत्त्वपूर्ण उपहारों के लिए एक बार पुनः धन्यवाद। मैं आपका विश्वासपात्र- एफ. मैक्समूलर (भारती, पृ. ९३-९४) मैक्समूलर के संस्कृत ज्ञान के विषय, उवसके समकालीन वैदिक संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान एवं वेदों के भाष्यकार स्वामी दयानन्द सरस्वती (१८२५-८२) ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रकार लिखा हैः जो लोग कहते हैं कि जर्मनी देश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं, उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहने मात्र है, क्योंकि यस्मिन्देशे द्रमोनास्ति वत्रैरण्डोह्णपि द्रमायते अर्थात्‌ जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता, उसे देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा-सा पढ़ा, वही उस देश के लिए अधिक है। परंतु आर्यावर्त देश की ओर देखें तो उनकी बहुत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मनी निवासी के एक प्रिन्सीपल के पत्र से जाना कि जर्मनी देश में संस्कृत-चिट्‌ठी को अर्थ कने वाले भी बहुत कम हैं। (प्र., 261) वास्तव में मैक्समूलर को लौकिक संस्कृत का प्रारम्भिक ज्ञान था, न कि वैदिक संस्कृत का, जो कि पाणिनीय व्याकरण और निरुक्त के आधार पर स्पष्ट की जाती है जिसे कि वह नहीं जानता था, और न उसने कभी जानने का प्रयास ही किया। मैक्समूलर ने स्वंय अपना संस्कृत ज्ञान अपर्याप्त माना मैक्समूलर, जिसे ऋग्वेद का भाष्य करना एक हल्का-फुल्का काम लगा था, पहले दो खंडो को (१९४९, १९५४ में) प्रकाशित करने के बाद ही उसे वह काम अति कठिन, बड़ा और उबाऊ लगने लगा जबकि दूसरे खंड में जर्मनी के विलियम आर्चर ने उसकी सहायता की थी। अब वह उस कार्य से ऊबने लगा क्योंकि वह वेद को समझने और उसका भाष्य करने के लिए पूर्णतया अयोग्य था। इसीलिए वह भारत आना चाहता था ताकि वैदिक संस्कृत का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सके जैसा कि उसके बुनसन को नीचे लिखे पत्र से सुस्पष्ट हैः “55 St. John Street, Oxford, August 25, 1856……”Whether I shall be able to do this is doubtful, for without my love for antiquity and the past, my dreams for the future return again and again, and I feel somewhat drawn to India—a desire difficult to resist in the end. Only I do not know have to get there; but my life here seems so aimless and unfruitful that I shall not be able to bear it for very much longer. I thought the other day whether I could not manage to go to India with the Maharaja Dhulip Singh. He is very well spoken of, and he returns next year after having learnt in England what good things he would do some day for his fatherland in India. It seems to me it would form the natural nucleus of a small Indo Christian colony, and it is only necessary to create such a centre in order to exercise one’s power of attraction on all sides. After the last annexation the territorial conquest of India ceases—what follows next is the struggle in the realm of religion and of spirit, in which, of course, centre the interests of the nations. ... India is much ripe for the Christianity than Rome or Greece were at the time of St. Paul. The rotten tree has for some time had artificial supports, because its fall would have been inconvenient for the government. But if the Englishmen come to see that the tree mast fall. Sooner or later, then the thing is done, and he will mind no sacrifice either down my life, or at least to lend my hand to bring about this struggle I should like to lay down my life, or at least to lend my hand to bring about this struggle, like to go to India not as a missionary, that makes one dependent on the persons, nor do I care to go as a Civil Servant, as that would make me dependent on the government. I should like to live for ten years quietly and learn the language, try to make friends, and then mischief of Indian priestcraft could be overthrown and the way opened for the entrance of simple Christian teaching, that entrance which this teaching finds into every human heart, which is free from the enslaving powers of priests and from the obsecuring influence of philosophers. Whatever finds root in India soon overshadows the whole of Asia, and nowhere could the vital power of Christianity more gloriously realize itself than if the world saw it spring up there for a second time, in very different form than in the West, but still essentially the same. “Much more could be said about this; a wide world opens before one… for which it is well worth while to give one’s life. And what is to be done here? Here in England? Here in Oxford?—nothing but to help polish up a few ornaments on a cathedral which is rotten at the base”…. (LLMM, Vol. 11, pp. 190-92). ५५ सेन्ट जॉन स्ट्रीट, ऑक्सफोर्ड, अगस्त २५, १८५६;............ किसी तरह मैं यह (वेद भाष्य का कार्य) कर भी पाऊँगा, संदेहजनक है क्योंकि प्राचीनता और अतीत के प्रति मेरे प्रेम के बिना मेरे भविष्य के लिए सपने बार-बार लौटते हैं और मैं भारत की ओर कुछ खिंचा अनुभव करता हूँ एक ऐसी इच्छा जिसे अंत में दबाना मुश्किल है। मैं केवल यही नहीं जानता कि मैं वहाँ कैसे पहुँचूं। लेकिन यहाँ मेरा जीवन इतना लक्ष्यहीन और व्यर्थ प्रतीत होता है जिसे कि मैं बहुत अधिक समय तक सहन न कर पाऊँगा। अभी हाल ही में मैंने सोचा कि क्या ऐसा संभव नहीं कि मैं महाराजा धुलीप सिंह के साथ भारत जा सकूँ। वह व्यक्ति सुविखयात है और इंग्लैंड में शिक्षा समाप्त करवह अगले वर्ष भारत लौटेगा और भारत में अपने पितृ देश के लिए कितना अच्छा काम कर सकेगा। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक स्वाभाविक छोटी-सी इंडो-क्रिश्चियन कॉलोनी का केन्द्र बन जाएगा और ऐसे एक केन्द्र को बनाने की आवश्यकता है ताकि वह सब तरह से आकर्षण का केन्द्र बन सके। संपूर्ण भारतीय क्षेत्र को अपने अधिकार में लाने के बाद अगला काम धर्म और राष्ट्रीय हितों के लिए संघर्ष करना है। आज भारत ईसाईयत के लिए उससे कहीं ज्यादा उपयुक्त है जितने कि सेंट पॉल के समय में रोम या ग्रीस थे। इस गले-सड़े वृक्ष के पास कुछ समय के लिए बनावटी सहारा था क्योंकि तब उसका पतन सरकार के लिए असुविधा जनक हाो। लेकिन यदि अंग्रेज लोग यह देखना चाहते हैं कि वह पेड़ थोड़ा आगे पीछे चलकर गिर जाए तो यह काम हो जाएगा और वह इसके लिए देश छोड़ने एवं अपना जीवन बलिदान करने में भी नहीं हिचकिचाएगा। इस संघर्ष की सफलता के लिए, मैं अपना जीवन बलिदान करना चाहूँगा अथवा कम से कम उस संघर्ष को प्रारंभ करने के लिए मैं अपना पूरा सहयोग दूंगा। मैं भारत, एक ईसाई मिशनरी के रूप में जाना बिल्कुल नहीं चाहता हूँ क्योंकि इससे ईसाई पादरियोंपर निर्भर होना पड़ेगा, और न मै। एक सिविल सेवके के रूप में जाना चाहता हूँ, इससे मुझे सरकार पर निर्भर होना पड़ेगा। मैं वहाँ शान्ति से दस वर्ष रहकर भाषा (संस्कृत) सीखना एवं नए मित्र बनाना चाहता हूँ और उसके बाद देखूँगा कि मैं यह कार्य (वेद भाष्य) करने के योग्य हूँ भी कि नहीं जिसके द्वारा भारतीय पुरोहितों के दुष्कृत्यों को उखाड़ फेंका जाए और फिर ईसाईयत की सीधी-सादी व सरल शिक्षाओं का द्वार खोला जा सके। ऐसी शिक्षाऐं, जो कि प्रत्येक मनुष्य के हृदय में प्रवेश करें, जो कि पुरोहितों की गुलाम बनाने वाली शक्तियों और दार्शनिकों के दुर्बोध विचारों के प्रभाव से मुक्त हों। भारत में जो कुछ भी विचार जन्म लेता है शीघ्र ही वह सारे एशिया में फैल जाता है और कहीं भी दूसरी जगह ईसाईयत की महानशक्ति अधिक शान से नहीं समझी जा सकती जितनी कि दुनिया वहाँ दूसरी बात पनपते देखे, पश्चिम से बिल्कुल विभिन्न प्रकार से, लेकिन फिर भी मूल रूप वही हो। इसके बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है, कार्य करने वाले के लिए एक विशाल क्षेत्र है जिसके लिए यदि किसी को जीवन भी देना पड़े तो भी उचित है। और यहाँ क्या किया जाए?यहाँ इंग्लैंड में? यहाँ ऑक्सफोर्ड में?........... कुछ नहीं, इसके अलावा कि उस कार्य में कुछ आभूषणों को चमका दिया जाए जिसकी नींव गल चुकी है। (जी.प., खंड, २, पृ. १९०-१९२) उपरोक्त पत्र से पाठक समझ गए होंगे कि मैक्समूलर भारत में आकर हिन्दू धर्म को समूल नष्ट करने के लिए अपना जीवन भी बलिदान करने को तैयार था। वह दस वर्ष तक संस्कृत भी सीखना चाहता था इससे सुस्पष्ट है कि वह संसकृत में नौसिखिया व धर्मान्तरणकारी मात्र था तथा वेद भाष्य करने के लिए उसे वैदिक संस्कृत के गहन अध्ययन की आवश्यकता थी। बुनसन को लिखे इस पत्र में मैक्समूलर ने अपने विश्वासपात्र मित्र के सामने हृदय खोलकर रख दिया है और एक धर्मान्तरणकारी ईसाई-जैसा अपना असली चेहरा उजागर कर दिया है। वह गले-सड़े हिन्दू धर्म के वृक्ष को नष्ट करने के लिए अपने जीवन को भी बलिदान करने को तैयार है। अधिकांश ईसाई मिशनरियों की तरह, वह भी यही समझता था कि भारत ईसाईयत के लिए बहुत उपयुक्त है। खेद है कि मैक्समूलर द्वारा ऊपर दी गई स्वीकारोक्तियों के बाद भी, कुछ भारतीय, विशेषकर सैक्यूलरवादी, इसे हिन्दू धर्म का मित्र और शुभचिन्तक मानते हैं १ मार्च १९७२ को आकाशवाणी नागपुर केन्द्र से एक भाषण प्रसारित हुआ था जिसे कि नागपुर टाइम्स (६ मार्च) ने छापा। इसमें डॉ. एम. टी. सहस्रबुद्धे ने कहाः “The lofty figure of this great European friend of India, and a veteran scholar of Sanskrit Linguistics and Philosophy should inspire us to use our own priceless treasures. Though a foreigner, he was full of love for India and its heritage.” (Bharti, p.53). संस्कृत भाषा और दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान यह (मैक्समूलर) भारत के मित्र हैं। इस यूरोपीय विद्वान के महान व्यक्तित्व और जीवन से हमें अपनी अमूल्य धरोहर का प्रयोग करने की प्रेरणा लेनी चाहिए। विदेशी होते हुए भी वह भारत और इसकी प्राचीन धरोहर का प्रेमी है। (भारती पृ. ५३) काश! ऐसे लोगों ने मैक्समूलर की जीवनी व पत्रों को पढ़ा होता और प्राचीन वेद भाष्य प्रणाली पर आधारित महर्षि दयानंद के वेद भाष्य की मैक्समूलर के भाष्य से तुलना की होती तो उनकी आँखें खुल जातीं। पाश्चात्य वेद भाष्यकारों का संस्कृत ज्ञान सभी पाश्चात्य विद्वानों ने वेद भाष्य लौकिक संस्कृत के ज्ञान के आधार से प्रारंभ किया जोकि वेद भाष्य के लिएअपर्याप्त था तथा वहाँ पाणिनीय व्याकरण से संस्कृत शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। उन्हें केवल लौकिक संस्कृत का प्रारम्भिक ज्ञान था। यूरोपीय विद्वानों के संस्कृत ज्ञान के विषय में जर्मन दार्शनिक शोपेनहर लिखता है- “….Our Sanskrit scholars do not understand their text much better than the higher class boys their Greek or Latin.” ( Bharti, p. 78). अर्थात्‌ हमारे संस्कृत विद्वान उनके संस्कृत ग्रंथों को इससे ज्यादा नहीं जानते हैं जितने कि हमारे हाय सैकिन्ड्री कक्षा के विद्यार्थी लैटिन अथवा ग्रीक भाषा को जानते हैं। (भारती, प्र. 178) वैदिक संस्कृत की अपनी अज्ञानता के अतिरिक्त मैक्समूलर यह भी भली-भांति जानता था, कि संस्कृत व्याकरण के लिए पाणिनीय व्याकरण सर्वश्रेष्ठ है। वह लिखता है- “The science of phonetics rose in India at a time when writing was unknown,….. I believe I shall not be contradicted by Hemlboltz, or Ellis, or other representatives of phonetic science, if I say that, to the present day, the phoneticians of India of the 5th century B.C. are unsurpassed in their analysis of the elements of language. In grammar, I challenge any scholar to produce from any language a more comprehensive collection and classification of all the facts of a language than what we find in Panini’s Sutras.” (The Lectures on the Origin and Growth of Religion. P.146). अर्थात्‌ ध्वनि विज्ञान का जन्म भारत में उस समय हुआ जबकि लेखन शैली अज्ञात थी.... मेरा विश्वास है कि मेरे मत का हेल्म हॉल्टज, एलिस तथा अन्य उपस्थित ध्वनि विज्ञानी भी इसका विरोध नहीं करेंगे, यदि मैं यह कहूँ कि भाषा विश्लेषण में कोई भी ध्वनि विज्ञानी आज तक ईसा पूर्व पाँचवी सदी के भारतीय ध्वनि विज्ञानियों से आगे नहीं बैठ सका है। व्याकरण के क्षेख में मैं विद्वानों को चुनौती देता हूँ कि वे किसी भी भाषा में ऐसा कोई विद्वान बतावें जिसने सभी तथ्यों का इतना गहन अध्ययन और वर्गीकरण किया हो जितना कि हम पाणिनीय के सूत्रों में देखते हैं। (लैक्चर्स ऑन दी ओरिजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ लैंग्वेज, पृ. १४६) अतः अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने पाणिनी और पातञ्‌जलि के व्याकरण ग्रंथों की अत्यंत प्रशंसा की है, और वेदभाष्य के लिए इनकी उपयोगिता मानी है। इस संदर्भ में प्रो. ए. एच.सायसी ने मैक्समूलर की पुस्तक सांइस ऑफ लैंग्वेज में लिखा है कि पाणिनी, विश्व की सभी भाषाओं और सभी कालों के वैयाकरणों में सर्वोत्तम थाः “The native grammarians of India had at an early period analysed both the phonetic sounds and vocabulary of Sanskrit with astonishing precisian, and drawn up a far more scientific system of grammar than the philogogists of Alexandria or Roma had been able to attain. The Devnagri alphabet is a splendid monument of phonological accuracy, and lont before the time of Sandia and Khayug, the Hindu “Vaiyakaranas” or grammarians, had not only discovered that roots are the ultimate elements of language but had traced all the words of Sanskrit to a limited number of roots. Their grammatical system and nomenclature of inductive reasoning, and though based on the phenomena of a single language, show a scientific insight into the nature of speech which has never been surpassed.” (Introduction to “The Science of Language”, by Max, Mullar, Vol. 1, p. 38; Bharti, p. 83-84). इसी प्रकार अन्य विद्वानों ने भी पाणिनी की अष्टाध्ययी के विषय में कहाः (i) “The grammar of Panini is one of the most remarkable literary works that the world has ever seen, and no other country can produce any grammatical system at all comparable to it either for originality of plan or analytical subtlety. His Sutras are a perfect miracle of condensation.” (Indian Wisdom, p. 172; Bharti,p.82). अर्थात्‌ पाणिनी का व्याकरण एक महान साहित्यिक रचनाओं में से एक है जिसे कि विश्व में किसी ने देखा है और कोई भी देश, इसकी तुलतना में, कोई वैयाकरणीय व्यवस्था विकसित नहीं कर सका है, मौलिकता अथवा विश्लेषण दोनों की दृष्टि से उसके सूत्र संश्लेषण के पूर्ण चमत्कार हैं। (इंडियन विज्डम, पृ. १७२) इसी प्रकार सर डब्लू हंटर भारत के इंम्पीरियल गजट में लिखता हैः (ii) “The grammar of Panini stands supreme among the grammars of the world, alike for its precision of statement and for its thorough analysis of the roots of the language and the formative principle of words. By applying an analytical terminology, it attains a sharp succinctness unrivalled in brevity but at times enigmatical. It arranges in logical harmony the whole phenomena which language presents and stands forth as one of the most splendid achievements of human invention and industry.” (Sir W Hunter in Imperial Gazette of India p.214; Bharti. P. 82-83). (iii) “We pass at once into the magnificient edifice which bears the name of the Panini as its architect, and which justly commands the wonder and admiration of every one who enters, and which by the very fact of its sufficing for all the phenomena which language and his profound penetration of the entire material of the language.” (Indian Literature, p.216). (iv) “Patanjali’s Mahabhashaya is one of the most wonderful grammatical works that the genius of any country has ever produced.” (Indian Wisdom; Bharti, p.83). (v) “In philology, the Hindus have, perhaps, excelled both the ancients(Greeks and Romans) and the moderns.” (Mythology of the Hindus by W. Ward; Bharti, p. 83). अर्थात्‌भारतीय वैयाकरणों ने अति प्राचीन काल में ही संस्कृत की शब्दावली और फोनोटीय (स्वनीय) ध्वनि का आश्चर्यजनक शुद्धता के साथ विश्लेषण किया है। इन्होंने अलेंक्जेंड्रिया अथवा रोम के भाषा विज्ञानियों से कहीं अधिक वैज्ञानिकता के साथ वैयाकरणीय व्यवस्था दी है। देवनागरी के अक्षर एवं उनका क्रम ध्वनि विज्ञान की शुद्धता में एक महान स्मृति स्तम्भ है और जो सादिया और खय्यूग से बहुत पहले के हैं। इन हिन्दू वैयाकरणों ने न केवल यह खोजा है कि भाषा के मूल तत्व धातुऐं ही होती हैं बल्कि उन्होंने संस्कृत की उन सीमित सभी धातुओं को भी खोज निकाला जिन पर संस्कृत के सभी शब्द आधारित हैं। उनकी व्याकरणीय और प्रेरक तर्क आधारित उच्चारण व्यवस्था, हालांकि एक ही भाषा पर आधारित है, वह एक वैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि वाणी के स्वभाव को प्रगट करती है जिसका कभी अतिक्रमण नहीं किया जा सका है। (भूमिका, सांईस ऑफ लैंग्वेज, पृ. ३८) मैक्समूलर के पाणिनीय व्याकरण के प्रति इतने उच्च विचार होते हुए भी, उसने इस महान वैयाकरण का अपने वेदभाष्य में प्रयोग केवल इसलिए नहीं किया क्योंकि वह अद्वितीय विद्वान पाणिनी को समझ ही नहीं सका, और शायद कोई उसे समझा न सका या उसने जानबूझकर उसकी अनदेखी की। अतः सच्चाई तो यही है कि मैक्समूलर ऋग्वेद के भाष्य करने के अनुबंध के लिए पूर्णतया अयोग्य था, जिसके लिए पाणिनी अष्ठाध्यायी, पातंज्जलि महाभाष्य और यास्क के निरुक्त जैसे संस्कृत व्याकरण के ग्रंथों के गहन ज्ञान की आवश्यकता होती है। वास्तव में वह इन सबसे पूरी तरह अनजान था। इसीलिए वह भारत आकर दसा वर्षों तक वैदिक संस्कृत सीखना चाहता या जैसा कि उसने बुनसन को अपने पत्र में सुस्पष्ट लिखा था। मगर ब्रिटेन को राजनैतिक व धार्मिक कारणों से सच्चे वैदिक ज्ञान की आवश्यकता कम, और वेदों के विरुपीकरण द्वारा भारत के ईसाईकरण की तीव्र लालसा और आवश्यकता अधिक थी।
Posted on: Fri, 29 Nov 2013 15:26:01 +0000

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