पाकिस्तान के सैनिकों ने - TopicsExpress



          

पाकिस्तान के सैनिकों ने हथियारबंद आतंकवादियों के साथ भारत की सीमा में घुसकर घात लगाकर पांच भारतीय सैनिकों की हत्या कर दी. देश की अस्मिता पर ये हमला तो शर्मनाक था ही लेकिन इससे भी शर्मनाक था देश के राजनीतिक गलियारों का वो नज़ारा जो पूरे दिन देखने को मिला. जवानों की शहादत के बाद हमने क्या किया? भारतीय सैनिकों की हत्या को लेकर विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तान के उप उच्चायुक्त को तलब किया और कड़ी नाराज़गी जाहिर कर दी. पाकिस्तान को ताकीद की गई कि दोबारा ऐसा न हो. (बहुत बड़ा काम किया सरकार ने, जैसे पाकिस्तान ने हमारे सैनिकों का खून नहीं बहाया हो, बल्कि हमारे बच्चे की दूध की बोतल गिरा दी हो.) हालांकि पाकिस्तान ने तो ऐसी किसी घटना में अपना हाथ होने से ही इंकार कर दिया. बात संसद तक भी पहुंची, सदन में हंगामा हुआ, नेताओं ने शोर मचाया. हंगामे की वजह से संसद ही नहीं चल पाई. विपक्ष ने सरकार पर नामर्द होने के आरोप लगाए, सरकार ने कहा कि हमला तो आपकी सरकार के वक्त भी हुआ था, वो भी संसद पर. हंगामा दोनों तरफ से बरपा. अंत में हाथ कुछ भी नहीं लगा. यहां तक कि सैनिकों की शहादत पर ठीक से शोक भी प्रकट नहीं किया जा सका. चर्चा तो दूर की बात थी. संसद की तरफ टकटकी लगाए देश को ये पता ही नहीं चल सका कि हमारा देश और हमारे माई बाप नेता पाकिस्तान के इस हमले का जवाब कैसे देंगे? देंगे भी या नहीं? इससे पहले जनवरी में पाकिस्तानी हमारे दो सैनिकों के सिर काटकर ले गए थे. तब हमने क्या किया था, पाकिस्तान के राजदूतों को बुलाकर नाराज़गी जाहिर कर दी, शहीदों के परिवारों को मुआवज़ा दिया और भूल गए. दोस्ती की कोशिशों से क्या मिला? 1993 के मुंबई बम धमाकों से लेकर पुंछ में पांच भारतीय सैनिकों की हत्या तक पाकिस्तान ने हमें हज़ारों घाव दिए हैं. अटल बिहारी वाजपेई बस लेकर पाकिस्तान गए तो पाकिस्तान के सैनिक मशीनगन और हथियार लेकर करगिल की चोटियों पर चढ़ गए. जनवरी 2013 में पाकिस्तानी सैनिक खून की प्यास बुझाने के लिए भारतीय सैनिकों के सिर काट ले गए तो हमारे विदेश मंत्री ने अजमेर की दरगाह पर मत्था टेकने आए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजा परवेज़ अशरफ को दोपहर का भोज दे दिया. इसी साल जब नवाज़ शरीफ ने जब पाकिस्तान के वज़ीरे आज़म की गद्दी संभाली थी तो उन्होंने भरोसा दिलाया था कि वो भारत के साथ रिश्तों को सुधारने के लिए काम करेंगे. इस भरोसे का नतीजा आज हमारे सामने है. लगे हाथ नवाज़ शरीफ ने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पाकिस्तान आने का न्यौता भी दे डाला. न्यौता तो हमारे प्रधानमंत्री ने टाल दिया लेकिन भरोसा दिलाया कि रिश्ते सुधारने के लिए भारत पूरा साथ देगा. पाकिस्तान दुश्मन नहीं तो क्या है? पाकिस्तान के साथ सन् 47 से चली आ रही दुश्मनी (मैं पाकिस्तान को दोस्त, यहां तक कि पड़ोसी भी नहीं कहना चाहता) किसी अंजाम पर पहुंचेगी या नहीं शायद इस देश में किसी को नहीं पता. सवाल ये उठता है कि क्या पाकिस्तान के मोस्ट फेवर्ड नेशन के तमगे की तमन्ना के बजाय भारत को पाकिस्तान को दुश्मन देश घोषित नहीं कर देना चाहिए. जेम्स बॉन्ड के किरदार को जन्म देने वाले लेखन इयन फ्लेमिंग ने अपनी किताब गोल्डफिंगर में एक लाइन लिखी थी. ‘Once is happenstance. Twice is coincidence. The third time it is enemy action’. तो पाकिस्तान से कश्मीर पर तीन जंग लड़ने और सैकड़ों आतंकवादी हमले झेलने के बाद हम उसे अपना दुश्मन नहीं तो क्या समझें? पाकिस्तान की तरफ से हुआ हर आतंकवादी हमला 2 जुलाई 1972 को दोनों देशों के बीच हुए शिमला समझौते और बाद की सरकारों के बीच तय हुए सीबीएम्स के तमाम मानकों का उल्लंघन है. जो कहते हैं कि दोनों देश अपने हर मतभेद को द्विपक्षीय बातचीत के जरिए शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाएंगे. कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. लेकिन अगर पाकिस्तान की बात मान भी लें कि कश्मीर विवादित हिस्सा है और दोनों देशों के बीच बातचीत में कश्मीर सबसे अहम मुद्दा है. तो भी एलओसी पार कर भारतीय सैनिकों की हत्या किसी समझौते के तहत जायज़ नहीं है. पड़ोसी की शक्ल में एक दोस्त भारत और उपमहाद्वीप की शांति और अच्छे व्यापार के हित में है. लेकिन जब पाकिस्तान हमारे साथ हाथ पकड़कर नहीं चलना चाहता, तो हम ऐसे पड़ोसी के साथ बातचीत और कॉन्फिडेंस बिल्डिंग के रास्ते पर अकेले कैसे चलें? पाकिस्तान कश्मीर समेत पूरे देश में अशांति और आतंक फैलाने की अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहा. वो भारत की सीमा का उल्लंघन कर बार बार अपने सैनिकों और आतंकवादियों को हमारे घर भेज रहा है. तो फिर हम यूएन जनरल असेंबली या फिर किसी अन्य प्लैटफॉर्म पर पाकिस्तान से बात क्यों करें. नई पाकिस्तान नीति की ज़रूरत पाकिस्तान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने में भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सबसे आगे रहे हैं. 26/11 के मुंबई हमले के बाद 16 जुलाई 2009 को मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गिलानी की शर्म-अल-शेख में मुलाकात हुई थी. मुलाकात के बाद जो साझा बयान जारी किया गया था उसमें एक बड़ा फैसला लिया गया. दोनों देशों के बीच तय हुआ था कि कॉम्पोज़िट डायलॉग और आतंकवाद के खिलाफ जंग दोनों अलग अलग चलेंगे और दोनों को जोड़ा नहीं जाएगा. इस साझा बयान को लेकर मनमोहन सिंह को देश लौटने पर कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी थी. हालांकि इस समझौते के बावजूद दोनों देशों के रिश्ते बद से बदतर होते गए हैं और आए दिन भारत को पाकिस्तानी सेना की गोलियों और आतंकवादी हमलों के घाव झेलने पड़ रहे हैं. क्या हम ऐसे चुकाएंगे कीमत शहादत की? इस बार फिर पाकिस्तान ने भारत के सीने में खंजर घोंपा है. 14 अगस्त को पाकिस्तान में आज़ादी की सालगिरह के साथ भारतीय सैनिकों की हत्या का भी जश्न मनेगा. और अगले ही दिन 15 अगस्त को भारत में हम इन पांच शहीदों समेत अब तक पाक के हाथों मारे गए सैकड़ों सपूतों को श्रद्धांजलि दे रहे होंगे. क्या यही हमारी ताकत है? “कमज़ोर बुनियादों पर बुलंद इमारतें नहीं टिकतीं. कोशिशें कर भी लें तो जमींदोज़ होना मुकद्दर है.“
Posted on: Thu, 08 Aug 2013 04:53:16 +0000

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