मेरे संपादक और संतापक - TopicsExpress



          

मेरे संपादक और संतापक -----1 ( mitro , मैंने वर्षों तक एक पत्रकार के रूप में नव भारत टाइम्स नामक अखबार में नौकरी की . भांति - भांति के लोग मिले . अपने युवा साथियों के हित में मै आज से यह श्रृंखला शुरू कर रहा हूँ . बगैर पढ़े ही लाइक करना हो तो आपकी मर्जी . ) केसरिया रंग में रंगे श्याम बाबू -------------------------------- आलोक मेहता से भयंकर और सार्वजनिक झगडा होने एक बाद मेरा पटना में रहना असंभव सा हो गया . वह मुझे वहां से खदेड़ने की जुगत में लग गए . मुझे नौकरी से निकाल बाहर करना मुश्किल ही नहिं , नामुमकिन भी था , क्योंकि प्रधान संपादक राजेन्द्र माथुर का मुझ पर वरद हस्त था . उधर आलोक मेहता भी राजेद्र माथुर साहब के निकटस्थ थे . आखिर तय हुआ कि मेरा तबादला अखबार के जयपुर संस्करण में कर दिया जाए . कुछ दिखावटी ना नुकुर के बाद मैं १९८९ की वसंत ऋतू में जयपुर पंहुचा . ट्रक पर सामान ढूलान के फर्जी बिल बना कर दफ्तर से दस हज़ार रुपये वसूले . लाइफ मस्त हो गयी . जयपुर में मै पी एच डी करने के बहाने दो साल पहले ही गुज़ार चुका था . चिर परिचित शहर था , लेकिन नए सम्पाद्क श्याम सुंदर आचार्य एकदम अपरिचित . वह कोई लेखक पत्रकार भी नहीं थे कि उनका नाम पहले से सुन पाता . घोर संघी थे . उनकी केबिन में गया . दोहरा शरीर . मृदु भाषी , मददगार , जैसा कि संघी प्रायः होते ही हैं . मै तब तक नव भारत टाइम्स के एडिट पेज पर छपने लगा था , सो मैंने रोब गांठना चाहा . उन्होंने तुरंत ही चालाकी से समर्पण कर दिया , यह कहते हुए कि मै तुम्हारे बारे में सब कुछ जानता हूँ . तुमने अब तक जो कुछ भी लिखा है वह सब पढ़ चुका हूँ . यद्यपि उनसे पांच मिनट की बात चीत के बाद मै समझ गया कि वह मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानते , और मेरे लेख तो क्या , वह कुछ भी नहीं पढते . यह बात मेरी समझ में आ गयी . उन जैसा सज्जन , सीधा , झूठा , दिल का साफ़ और कलाकार संघी पत्रकार मुझे और कोई नहीं मिला . उन्होंने मुझसे रहने की दिक्कत के बारे में पूछा , अगले दिन अपने घर पर लंच के लिए आहूत किया , और मै धन्यवाद देता हुआ बाहर निकल आया . ( जारी रहेगा मित्रों , अवश्य बताना कैसा लग रहा है , क्या कमी है )
Posted on: Fri, 02 Aug 2013 08:27:36 +0000

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