पता नहीं क्या लिख रही हूँ, सुबह - सुबह अगर किसी को लगे नाश्ता खराब कर दिया " मैंने " | तो माफ़ी, मैं सवालों में खुद फसी, हुई थी - लिखते वक़्त | मैं भी सोचने लगी और कब तक ?? इस तरह के वातावरण में जिया जाये ?? कमज़ोर पर होता ज़ोर समाज की नगन तस्वीर बार - बार सामने लेकर आती है की औरत का जिस्म मात्र मांस का टुकड़ा ही है अगर नहीं तो मन बहलाने का कोई खिलौना | जो आये दिन इस नपुंसक, लाचार व्यवस्था की बलि चढ़ जाती है, दिल्ली में जो हुआ उसका विरोध मीडिया के कारण चर्चा में आया लेकिन अब तक लोग की मानसिकता में परिवर्तन शून्य है | जमीनी पत्रकारों की आँखे ऐसी हजारों घटनाएँ आये दिन होती देखती है, प्रिन्ट मीडिया में जो कुछ लिखा जाता है तो अज्ञात शव पता नहीं कौन थी ?? और ये भी एक घिनौना सच है जिनके साथ इस तरह की बर्बरता होती है उन्हें तो समाज का सदस्य ही नहीं माना जाता | मैंने भी ऐसा होते देखा है, उनके लिये कोई घर से निकलकर बाहर नहीं आता जो भीड़-खड़ी होती है, उसमें भी दया या दुःख नहीं होती | एक कूड़ा ही समझ कोई भी ध्यान नहीं देता और मैं कोई सुपर वीमेन तो नहीं जो हर जगह पहुँच पाऊं, आज सुबह की घटना ने मुझे ये सब लिखने को मजबूर किया है लेकिन मुझे कोई परिवर्तन की उम्मीद नहीं, ये तो हमारे देश में हर रोज जो होता है । उसे रोकने के लिये उन जानवरों की सोच बदलनी होगी, जो की असम्भव है | हम लोग तो जनसंख्या के बोझ में दबे है और भारत के गरीब की रुपय तक की औकात नहीं , अगर सरकार गरीबी को मिटाने जाये तो विकास रुकता है | विदेशी धन का कर्ज हम पर, हम सभी भारतीयों पर है, जो खुद को समाज का अंग कहते है | फूटपाथ या कूड़े में फेकी गयी जुर्म की शिकार इन औरते को रुपय में भी नहीं गिना जाता तो डॉलर , यूरों में उन्हें कौन गिनने ?? कुछ सौ मरे किसे क्या फर्क पड़ता है, अपराध , हत्या, रेप तो हर राज्य में होता है | जिनकों पूछता कोई नहीं उन लावारिसों की मौत किसी की भी आँखे नम नहीं करती | हमारे जैसे नर्म दिल लोग कुछ देर चिल्लाकर चुप हो जाते है, क्योंकि हमें समाज में जीना है और समाज हमारा साथ दे नहीं सकता उसकी अपनी मजबूरियां कई है, चलों कभी उसे भी गिनकर बता दूँगी |
Posted on: Tue, 16 Jul 2013 02:56:39 +0000
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