आज dainik bhaskar में कल्पेश - TopicsExpress



          

आज dainik bhaskar में कल्पेश याग्निक जी के कॉलम असंभव के विरुद्ध पर लिखी मेरी प्रतिक्रिया- आदरणीय कल्पेश याग्निक जी! क्या लिख रहे हैं आप? क्या सोच रहे हैं आप? आपके मन में क्या है और आपका दिमाग आखिर क्या चाहता है? कल्पेश जी... आप एक समाचार पत्र के संपादक हैं. संपादक की हैसियत से लिखना चाहिए आपको... निष्पक्ष और निर्भीक ! आपके लिखे का क्या मंतव्य है? क्यों आप स्थितियों को एक ज़बरन थोपी हुई बौद्धिकता से देख रहे हैं? क्या समाचार जगत में शीर्ष पर बने रहने के लिए यह थोथी बौद्धिकता आवश्यक है? क्यों आपको एक ही पक्ष मासूम दिखता है और दूसरा पक्ष अनुभवी और गिद्ध दृष्टी से युक्त? अनुभवी के साथ यह गिद्ध दृष्टी शब्द प्रयोग क्यों? वह भी उस व्यक्ति के लिए जिसे एक राज्य की जनता ने लगातार तीसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ अपना मुख्यमंत्री चुना है. (हालाँकि जन की बात करने वाले कथित जन-वादियों का खर्चा-पानी इसी जन को मूर्ख सिद्ध करके ही चलता है और पिछले एक दशक से गुजरात की जनता को गरियाना, उन्हें उन्मादी, सांप्रदायिक आदि-आदि कहना ही बौद्धिकता का प्रमाणपत्र प्राप्त करने का एकमात्र जरिया है, आप जैसे वरिष्ठ बुद्धिजीवियों की यह मजबूरी हम भी समझते हैं! ) किन्तु आपको निष्पक्ष मानने वाले पाठकों को निष्पक्षता की आड़ में यह पक्षपात क्यों लपेटकर दे रहे हैं आप? आपको क्यों नहीं दिखता कि एक निहायत ही गैरजिम्मेदार बच्चा आँखों में दिखावटी आंसू लाकर जनता से वह चंद सिक्के भी छीन लेना चाहता है जिससे उसके यार-दोस्त और सेवक मज़े से चॉकलेट खाते रहें? 43 साल के बच्चे की लगाई गयी आग भावुकता और अनजाने में? और यदि कोई इसपर सवाल उठाये तो आप पूछने वाले पर ही भावनाएं भड़काने का आरोप मढ देंगे? आप एक प्रदेश विशेष की जनता के लिए लिखते हैं कि उन रैलियों में लोग हँसते चले जाते... मोदी को वोट देते चले जाते.... क्या आपको लगता है कि जनता केवल मनोरंजन के लिए एक व्यक्ति को चुने जा रही है? (वह भी ७०% वोटिंग करके?) वहीँ एक 43 वर्षीय बच्चा आपके अनुसार अनजाने में आग भडकाता है? बचपन की ऐसी अजीबो-गरीब सीमारेखा हमारी समझ से तो परे है! 43 वर्षीय बच्चे को इस तरह अनजाने में (जैसा अपने लिखा) दंगे भड़काने की छूट है क्योंकि वह पवित्र परिवार में जन्मा है? आखिर आपकी मजबूरी क्या है महोदय? सच बोलकर भी कम से कम दाल रोटी का जुगाड़ तो हो ही जाता है. तब यह छद्म निष्पक्षता किसके लिए? शायद बुद्धिजीविता के बड़े-बड़े तमगे पाने की उम्मीद में? किन्तु तब निष्पक्षता का यह ढोंग छोड़ दीजिये. देश पहले ही बहुत नुकसान झेल चुका है.
Posted on: Sat, 26 Oct 2013 11:02:32 +0000

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