All about chetan Bhagat चेतन भगत का - TopicsExpress



          

All about chetan Bhagat चेतन भगत का लेखन ‘कहीं का पत्थर कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनबा जोड़ा’ शैली में होता है। वहाँ आपको भोथरे घमण्ड के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं मिलेगा। फिर भी इनके कुछ रुझानों की झलक मिल ही जाती है। उदाहरण के लिए चेतन भगत का साम्प्रदायिक रुझान, जिसे ये श्रीमान शब्दों की चाशनी में डुबोकर प्रस्तुत करते हैं। ‘एक मुस्लिम युवक का काल्पनिक पत्र’ नामक अपने लेख में इनका यह रुझान साफ तौर पर दिखता है। मुस्लिम युवक के हवाले से चेतन भगत का कहना है कि भारत में अपने मौजूदा हालात का ज़िम्मेदार भारतीय मुसलमान स्वयं हैं, कि मुसलमान धर्म को देश से अधिक तरजीह देते हैं, कि वे झुण्ड में वोट देते हैं, कि इन्हें धर्म की चिन्ता है विकास और भ्रष्टाचार की नहीं, आदि-आदि। इन्होंने तथाकथित मुस्लिम नेताओं को कैसे फटकारा है जरा एक नज़र देख लेते हैं। इनके अनुसार, “भारतीय अपनी आज़ादी से प्यार करते हैं। भारतीय नहीं चाहते कि उनके धार्मिक नेता बताएँ कि किसे वोट दें। बड़ी संख्या में आधुनिक भारतीय मुसलमान धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहते हैं। यहाँ आप असल में मदद कर सकते हैं। आप ज़ोर दे सकते हैं कि भारत पहले आता है, हमारे समुदाय की कट्टर आवाज़ों को किनारे कर सकते हैं। लेकिन आप में से कोई भी ऐसा नहीं कर रहा। आप सभी प्रतिगामी हैं, हमारे साथ झुण्ड जैसा व्यवहार करते हैं और हमारे रूढ़िवादियों और कट्टरवादियों का पक्ष लेते हैं।” चेतन भगत मूर्ख ही नहीं बल्कि असंवेदनशील भी हैं। भारत में औपनिवेशिक दौर से लेकर आज तक का इतिहास बताता है कि शासक वर्ग साम्प्रदायिक ताकतों का जंजीर में बन्धे कुत्ते की तरह इस्तेमाल करता रहा है। आज़ादी से पहले ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति के तहत यह काम अंग्रेज़ करते थे, बाद में इसका ठेका भारत के शासक वर्ग ने ले लिया। आज़ाद भारत में मुस्लिमों के अपने में सिमट कर रह जाने के कारण रहे हैं। इनमें सबसे मुख्य कारण है हिन्दुत्व के नाम पर ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस) और हिन्दू महासभा जैसे फ़ासीवादी संगठनों की साम्प्रदायिक राजनीति। इनके द्वारा षड्यन्त्र देश की आज़ादी के पहले ही शुरू कर दिये गये थे। जैसे चोरी-छिपे अयोध्या के विवादास्पद ढाँचे में “रामलला” की मूर्ति रखवाना। फिर धीरे-धीरे इन्होंने साम्प्रदायिकता को खाद-पानी देकर अस्सी के दशक में खुलकर अपना वीभत्स रूप दिखाना शुरू कर दिया। विवादास्पद ढाँचे को गिराने से पहले रथयात्रओं का आयोजन, साम्प्रदायिक दंगे, 2002 का गुजरात कत्लेआम आदि इनके प्रमुख षड्यन्त्र हैं। इसी साम्प्रदायिक राजनीति के कारण मुस्लिम आबादी अपने में ही सिमट कर रह गयी। उसे देश में दोयम दर्ज़े का नागरिक समझा गया। कांग्रेस ने भी समय-समय पर नरम साम्प्रदायिकता का कार्ड खेला है। इन्हीं कारणों की वजह से अल्पसंख्यक कट्टरता ने भी अपने पैर पसारे हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। किन्तु यदि कोई भारत में कट्टरता का ठीकरा केवल अल्पसंख्यकों पर ही फोड़ दे और अपनी बदहाली के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहरा दे तो उसकी मंशा को समझना ज़्यादा मुश्किल नहीं है। भाड़े के कलमघसीट अल्पसंख्यक आबादी के दर्द को क्या समझ सकते हैं! अपने एक दूसरे लेख में भी चेतन भगत कुछ इसी तरह का विधवा विलाप करते है कि गोधरा काण्ड और उसके बाद हुए अल्पसंख्यकों के क़त्लेआम के लिए कोई व्यक्ति या समूह नहीं बल्कि हम स्वयं(!?) ही ज़िम्मेदार हैं, कि हमने अपने मन के अन्दर छिपे राक्षसों को नहीं मारा है! ये फरमाते हैं, “हम यह जानना ही नहीं चाहते कि आखिर ऐसा क्या है कि हम ट्रेनों को जलाने और दंगा करने के लिए इतनी आसानी से उत्तेजित हो जाते हैं। हम सोचते ही नहीं कि जो हुआ उसके लिए किसी तरह हम भी ज़िम्मेदार हैं। अपने आप से यह सवाल पूछिए – क्या किसी भी स्तर पर हम ऐसी भावनाएँ पालने के दोषी हैं, जो देश के लिए अच्छी नहीं हैं? समय आ गया है कि थोड़ा मन्थन करें, शर्मिन्दगी महसूस करें और इससे बाहर निकलें। इसके लिए किसी एक व्यक्ति को माफी माँगने की ज़रूरत नहीं है। इसकी बजाय हम सबको माफी माँगनी चाहिए। समय आ गया है कि हम अपने अन्दर के राक्षसों का सामना करें।” यहाँ पर असल में चेतन भगत शासक वर्ग के उसी दृष्टिकोण को रख रहे हैं जिसके अनुसार शोषित अपने शोषण के लिए स्वयं ही ज़िम्मेदार होता है। इसको इन्होंने ऐसे रखा है कि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी प्रताड़ना के लिए स्वयं ही दोषी है। ‘अपने अन्दर राक्षसों को मारने’ के नाम पर बाहर घूम रहे राक्षसों को छूट देना कहाँ का इंसाफ़ है? “हिन्दुत्व” के नाम पर साम्प्रदायिकता की नपुंसक हुंकार का तो जैसे चेतन भगत को पता ही नहीं है। इसीलिए ये आरएसएस के गुर्गों का कहीं नाम तक नहीं लेते जबकि अजमेर शरीफ, मक्का मस्जिद, मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस आदि में हुए विस्फोटों में इनका सीधे-सीधे हाथ होने के सबूत पूरे देश के सामने हैं। जनवरी, 2012 में श्रीराम सेने से जुड़े कुछ “कार्यकर्त्ताओं” ने तो कर्नाटक के बीजापुर के सिन्दगी तहसीलदार के कार्यालय पर पाकिस्तान का झण्डा ही फहरा दिया था, ताकि ये दंगों की आग में अपने हाथ सेंक सकें। शुक्र है समय रहते ये गुण्डे पकड़े गये वरना पता नहीं कितने बेगुनाह मुसलमान युवक सलाखों के पीछे होते। चेतन भगत के अनुसार गुजरात दंगों के लिए एक व्यक्ति (नरेन्द्र मोदी) को माफी माँगने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि हम सभी (?) को माफी माँगनी चाहिए। इन सब बातों से लगता है कि मोदी की ‘ब्राण्डिंग’ (यानी किसी को ब्राण्ड की तरह प्रस्तुत करके नकारात्मक छवि को सकारात्मक छवि के मुल्लमे तले ढँकना) की छोटी-मोटी ठेकेदारी चेतन भगत को भी मिली है! क्योंकि मोदी की ब्राण्डिंग की बड़ी ठेकेदार “ऐपको वर्ल्डवाइड” नामक एजेन्सी है, जिसे मोदी ने अगस्त 2007 से मार्च 2013 तक 25,000 डॉलर प्रतिमाह अपनी ब्राण्डिंग के लिए दिये थे। (ज्ञात हो इसी एजेन्सी की सेवाएँ अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी ली थी।) अब ज़रा चेतन भगत की मोदी-भक्ति और राष्ट्र को धर्म से अलग करने के बारे में इनके दोहरे मापदण्ड को भी देखते हैं। अपने लेखों में अक्सर ही ये काफी चिन्तित रहते हैं, कि 2014 में भाजपा कैसे जीतेगी और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मोदी कैसे बैठें। अपने एक लेख में चेतन भगत बताते हैं कि मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचाने के लिए भाजपा को क्या-क्या करना चाहिए। इनके अनुसार सही मात्रा में भगवाकरण हो, जाति की राजनीति का पूरा उपयोग होना चाहिए, माइक्रो कैम्पेनिंग का स्तर होना चाहिए जिसमें मोदी को ब्राण्ड की तरह से प्रस्तुत किया जा सके, भाजपा को पूरी तरह से मोदी का समर्थन करना चाहिए, मोदी की निर्णायक क्षमता का भरपूर प्रचार हो आदि। (देखें, “2014 में जीत का रास्ता कैसे निकलेगा?”) ये नीतीश कुमार को भाजपा से गठबन्धन तोड़ने पर सलाह देते हैं, “दरअसल यदि आपके मन में किसी की धर्मनिरपेक्षता को लेकर संशय है भी, तब तो आपकी और भी ज्यादा ज़रूरत है। ऐसे में आप साम्प्रदायिक प्रवृत्तियों पर अंकुश के लिहाज़ से बेहतर सन्तुलनकारी साबित होंगे। वैसे अगर राजनीतिक खेल की बात करें तो मोदी के प्रति आपकी हिचक का एक समाधान हो सकता है। मोर्चे पर कोई ऐसा प्रत्याशी हो सकता है, जो अधिक स्वीकार्य है और मोदी उसके पीछे हो सकते हैं। यह सामने रहेगा, जिससे आप खुश रहेंगे, मगर तब भी नियंत्रण मोदी का रहेगा। आप एक ब्राण्ड हैं। 2014 को एक असली संग्राम बनाएँ जिससे बेहतर योद्धा के सिर जीत का सेहरा बँधे।” अब अलग से यह बताने की जरूरत नहीं है कि हमारे नौदौलतिये “विचारक” चेतन भगत भारत में फ़ासीवाद के सबसे बड़े प्रतीक के प्रधानमंत्री बनने के लिए पलक-पाँवड़े बिछाकर एक चारण की तरह उसकी अभ्यर्थना में लीन हैं। अपनी नंगई को इतनी बेशर्मी के साथ रखने का कारण या तो इनकी बेवकूफी हो सकती है या इनकी अपनी शासक वर्गीय पक्षधरता किन्तु ऐसे कलमघिस्सुओं को भी पाठक मिलना सचमुच चमत्कार ही है। चेतन भगत के ही अनुसार हमारा देश चमत्कारों का देश है! अब ज़रा एक चमत्कार चेतन भगत के दोगलेपन का भी देख लिया जाय। ‘एक मुस्लिम युवक का काल्पनिक पत्र’ नामक अपने लेख में इन्होंने कहा है, “भारतीय नहीं चाहते कि उनके धार्मिक नेता बताएँ कि किसे वोट दें और हम भारतीय हैं। बड़ी संख्या में भारतीय मुसलमान धर्म और राजनीति को अलग रखना चाहते हैं। यहाँ आप असल में मदद कर सकते है। आप ज़ोर दे सकते हैं कि भारत पहले आता है, हमारे समुदाय की कट्टर आवाजों को किनारे कर सकते है।” किन्तु दूसरी तरफ इन्होंने 2014 में भाजपा को जीतने के लिए क्या ब्रह्मज्ञान दिया है इसे भी देखते हैं। ये बताते हैं सही मात्र में भगवाकरण हो इनके अनुसार, “अगर काँग्रेस मुसलमानों पर निशान लगाती है तो भाजपा के पास हिन्दुओं पर निशान लगाने के अलावा कोई चारा नहीं है। फिर भी सकारात्मक हिन्दुत्व युवाओं पर बेहतर असर करेगा। सकारात्मक हिन्दुत्व धार्मिक क्रिया या सिद्धान्त नहीं है, यह भारत को आधुनिक, सुरक्षित, वैज्ञानिक, मुक्त, उदार और अच्छे संस्कार वाला समाज बनाने के सम्बन्ध में है।” वाह रे “तर्कशिरोमणि”! लगता है ज़मीर का क्रियाकर्म ही कर चुके हो। ये दो मानक किसलिए हैं? मुस्लिमों को तो आप धर्म को राजनीति से जोड़ने के कारण फटकारते हैं, किन्तु “हिन्दुत्व” का वोट बैंक के लिए इस्तेमाल आपको ज़रूरी महसूस होता है? चन्द सिक्कों के लिए आंय-बांय-सांय कुछ भी लिख देना, क्या आई.आई.टी. और आई.आई.एम. में आपको यही शिक्षा मिली है? और ये “सकारात्मक हिन्दुत्व” का आविष्कार आपकी मौलिक देन है या इसे किसी संघी के मुखारविन्द से चुराकर लाये हो? महाशय किसी भी प्रकार की कट्टरता हमेशा समाज में ज़हर घोलने का ही काम करती है। “सकारात्मक हिन्दुत्व” का 2002 का गुजराती प्रयोग क्या इस बात को समझने के लिए काफी नहीं है? असल में फ़ासीवाद भी पूँजीवाद के तमाम चेहरों में से एक चेहरा होता है। होना तो यही चाहिए कि धर्म को राजनीति से अलग किया जाना चाहिए, लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में इस बात की सम्भावना नगण्य होती है कि धार्मिक नारों और धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल न हो। दरअसल चेतन भगत की दोगली नीति उनके दिमाग में भरे पूर्वाग्रह और साम्प्रदायिकता के कूड़े को ही दिखाती है। एक कहावत है कि ‘यदि चूहा बिल्ली पर हँसे तो समझो उसका गड्ढा पास ही है’। दरअसल चेतन भगत पूरी तरह से आश्वस्त हैं कि उनके आका प्रधानमंत्री बन ही जायेंगे। या तो चेतन भगत संघियों के फ़ासीवादी पुरखों (हिटलर व मुसोलिनी) के हश्र से नावाकिफ हैं, या हिटलर का प्रचार मंत्री गोयबल्स, जिसका सोचना था कि ‘सौ बार बोलने से कोई झूठ भी सच बन जाता है’ इनका आदर्श है। निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है, कि चेतन भगत जैसे भाड़े के कलमघसीट जिन्हें समाज, विज्ञान, इतिहास के बारे में ज़रा भी ज्ञान नहीं होता केवल अपने मूर्खतापूर्ण बड़बोलेपन के बूते ही अपनी बौद्धिक दुकानदारी खड़ी कर लेते हैं। महानगरों में मध्यम वर्ग के युवा आपको मेट्रो आदि में चेतन भगत की “रचनाएँ” पढ़ते आसानी से दिख जायेंगे। भारत जैसे देश में जो औपनिवेशिक दौर से ही बौद्धिक कुपोषण का शिकार है, चेतन भगत जैसों की दाल आसानी से गल जाती है। किन्तु इस प्रकार के बगुला भगतों की ख़बर लेना बेहद ज़रूरी है। इनके बौद्धिक ग़रूर को ध्वस्त करना मुश्किल नहीं है, किन्तु ज़रूरी अवश्य है। ahwanmag/Chetan-Bhagat-and-his-communal-thoughts
Posted on: Tue, 01 Oct 2013 04:21:06 +0000

Trending Topics



Recently Viewed Topics




© 2015