जातिप्रथा क्योँ ?? आखिर - TopicsExpress



          

जातिप्रथा क्योँ ?? आखिर क्या है इसका औचित्य ?? वेदोँ मेँ लिखा है, प्राणी अपनी प्रजाति ( नस्ल) की संस्कृति के साथ ही पैदा होता है एवं पशु-प्रजातियाँ देह की आकृति से वर्गीकृत होती हैं । मनुष्य-जाति देहाकृति में तो एक समान ॐ आकार की होती है, लेकिन प्रजा के रूप में मानसिक-प्रजातियों में वर्गीकृत हो जाती हैं । शुरुआत में यह वर्गीकरण क्षेत्रीयता और रूप-रंग तक सीमित होता है, किन्तु कालांतर में सभ्यताओं के विकास के साथ विकसित होने वाले विविध प्रकार के रोज़गारों के कारण जाति धर्म की वृद्धि के परिप्रेक्ष में इन मानसिक प्रजातियों को वर्गीकृत किया जाता है । कालांतर में यही जातीय-धर्म (जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी) मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँबन गयीँ और धूर्तों के लिए उन मूर्खों को बाँधने का साधन । एक कूटनीतिज्ञ ने कहा है कि एक झूठ को सौ बार दोहराओ तो वह सच में बदल जाता है ठीक इसी तरह जब जाति व्यवस्था की बार बार आलोचना की गयी तो लोग इसके महत्व को लेकर भ्रमित होने लगे । गीता का एक सर्वाधिक प्रचलित श्लोक है - परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे अर्थात् साधुओं की रक्षा करने, दुष्टोँ का नाश करने एवं धर्म की स्थापना करने के लिए मैं अपना सृजन करता हूँ । यहाँ मैं से तात्पर्य ब्रह्म है और सीधे-साधे जनसाधारण के लिए साधू शब्द का उपयोग हुआ है, न कि वेशभूषा (Dress code)का दुरूपयोग करने वालों के लिए हुआ है । आज हम सब अपने परम्परागत जाति-धर्म (रोजगार) का आधुनिकीकरण करने के स्थान पर परम्परा से मिले आरक्षित रोजगार को गरिमाहीन मान कर उसे छोड़ने लगे हैं । दूसरी तरफ हम जाति-प्रथा को राजनैतिक कारणों से मजबूती दे रहें हैं । और तीसरी तरफ जाति-प्रथा को समाज का नासूर कह कर आलोचना भी कर रहे हैं । क्या हमारे पूर्वज मूर्ख थे, जो उन्होंने जाति-प्रथा बनायी ? नहीँ, शायद हमारे जितने तो नहीं थे । जाति प्रथा बनाने के पीछे कारण - जाति प्रथा बनाने का सबसे प्रमुख कारण था, जैनेटिक विशेषताओँ को सुरक्षित रखना । वैज्ञानिकोँ ने भी माना है कि अंतर्जातीय विवाह से जैनेटिक बीमारियोँ का खतरा होता है । प्राचीन विद्वान इस तथ्य से भलिभाँति परिचित थे । आर्थिक एवं शैक्षणिक लाभ - आज लोग आरक्षण के लिए दौड़ रहे हैं, जबकि इस व्यवस्था में आपका परम्परागत रोजगार आरक्षित होता है । अप्रिय लगने वाले विषय को भी लोग रट कर पढ़ते हैं । ऊपर से पैसे भी खर्च करते हैं, फिर भी न तो नौकरी मिलती है और न ही योग्यता पनपती है । जबकि वंशानुगत रोजगार में, गर्भ में ही संस्कार जनित योग्यता विकसित होने लग जाती हैं और रोजगार के लिए भटकना भी नहीं पड़ता । सामाजिक लाभ - एक ही समाज का अधिकांशतः एक ही रोजगार होता है, अतः परस्पर सहयोग बना रहता है । कमाने की प्रतिस्पर्धा नहीं होती, बल्कि प्रतिस्पर्धा का रूप योग्यता निखारने के लिए होता है । इसी प्रतिस्पर्धा में हस्त कलाओं का विकास हुआ । आज मजबूत सिंथेटिक धागा भी 160 गेज से पतला हो तो मशीन अपने हाथ खड़े कर देती है, जबकि ढाका की विश्व-प्रसिद्ध मलमल में240 गेज का धागा हाथ से कात कर बुना जाता था । भारत की हस्त कलाएं जो अवशेष रूप में बची हैं वे भी आश्चर्य जनक हैं । वैज्ञानिक लाभ - शरीर-विज्ञान के अनुसार, जातिगत वर्गीकरण में आनुवांशिक (Genetic) गुणसूत्र की भूमिका होती है । इससे हमारी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता के साथ-साथ मासपेशियों की संवेदनशीलता उसी रोजगार के अनुकूल हो जाती है जो वंशानुगत होता है । अतः हमेँ वंशानुगत कार्य सिद्धि प्राप्त हो जाती है । प्रशिक्षण के लिए किसी बाहरी व्यक्ति या संस्था का मोहताज होना नहीं पड़ता । भारत मेँ सुथार (सूत्रधार), खाती, बढ़ई, कुम्हार, लोहार, गज्जर, जांगीड़ इत्यादि नामोँ से जिनको पहचाना जाता है, वे जातियाँ विश्वकर्मा की परम्परा से हैं । आज हम I.T.I.,I.T., Engineer, Industrial Technician इत्यादि को बहुत ऊँची हस्ती मानते हैँ, लेकिन इन जातियोँ मेँ पैदा होने का अर्थ है कि हम जन्म-जात इंजिनियर हैँ । किसी भी साईन्स का उपयोग करने के लिए सेन्स की भूमिका निर्णायक होती है । जब हम विद्यालय में भरती होते हैँ, तो बछड़े होते हैं । लेकिन सांख्य को रट कर बिना उस पर प्रयोग-प्रशिक्षण किये और बिना उसकी उपयोगिता जाने ही डिग्री लेकर विद्यालय से बाहर निकलते हैं तो हमारी नस्ल, मानसिक-प्रजाति गधे से भी बदतर बन चुकी होती है । आज की स्थिति तो यह है कि धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का न तो जाति के जॉब को लेकर गर्व है और न ही सामाजिक समन्वय है । बस अपनी जाति को लेकर राग-अनुराग है और अन्य जातियों से द्वेष भाव है । हम न तो अपने परम्परागत जॉब को आरक्षित रख पा रहे हैं और न ही अपने जॉब सम्बन्धी सरकारी विभागों में ही आरक्षण की व्यवस्था बनवा पाए हैँ । आज भारत में बेरोजगारी नहीं हरामखोरी है । क्योंकि कार्य-दक्षता और परिश्रम करने की शारीरिक क्षमता दोनों का जहाँ अभाव हो और ऊपर से पैसों की लालसा हो, वहां हरामखोरी अकर्मण्यता नहीं बल्कि एक सहज आचरण बन जाता है ।
Posted on: Thu, 28 Nov 2013 17:18:20 +0000

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