कहते हैं तालीम इन्सान को - TopicsExpress



          

कहते हैं तालीम इन्सान को इन्सान बनाती है। सभी मज़हबो में तालीम को काफ़ी तवज्जो और अहमियत दी गयी है। जब हम अपने घर के किसी बच्चे को कुछ सिखाने की कोशिश करते हैं और वह उसको सीखकर अमली तौर पर कर के दिखाता है तो ज़हिर है कि हमें ख़ुशी का एहसास होता है; यानि तालीम की शुरूवात घर से होती है। हमारी आने वाली नई नस्ल की सोच काफ़ी हद तक हमारी सोच पर मुनहसिर होती है। किसी बच्चे का ज़ेहेन एक पाक ज़ेहेन होता है, उसमें बुराइयाँ नहीं होती या यूँ कहें कि वह बुराइयों को सोचने के क़़ाबिल नहीं होता। वह सिर्फ़ सीखना चाहता है इस बात का इनहिसार हम पर है कि हम उसे क्या सिखायें या क्या न सिखाएं। आज का दौर तरक़्क़ी का दौर है हम अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी दुनियावी तालीम देने की कोशिश करते हैं। शुरू से हमारा पूरा ध्यान इस बात पर होता है कि हम अपने बच्चे को कौन सी ऐसी पेशेवर तालीम दिलायें कि वह मुस्तक़बिल में ज़्यादा से ज़्यादा दौलत कमाये। ज़ाहिर है पेशेवर तालीम दिलाने का मक़सद पैसा ही होता है। बहुत बार हम अपने बच्चों को रिशवत या दूसरे ग़ल्त ज़रायों का सहारा लेकर ऐसी पेशेवर तालीम के हवाले कर देते हैं, जिसके वह अहल नहीं होते। मुमकिन है कि बच्चा इन तमाम राहों से गुज़रता हुआ अपनी क़ामियाबी की मंज़िल को पा ले। यहाँ पर मैं यह बताता चलूँ कि हालिया दौर में क़ामियाबी का मतलब ज़्यादा से ज़्यादा पैसे का होना समझा जाता है; लेकिन अगर हम ज़िन्दगी के दूसरे पहलू पर रोशनी डालें तो वह बच्चा जिसे हम क़मियाब समझते हैं, जिसकी क़ामियाबी के लिए हमने अपनी पूरी ज़िन्दगी जी-जान एक कर दिया उसके पास हमारे लिए वक़्त नहीं होता। हमारे लिए ही नहीं, वह किसी भी रिश्ते को वक़्त देना नहीं चाहता। वह रिश्तों को दौलत के तराज़ू पर रख कर तौलने की कोशिश करता है। वह भूल चुका होता है कि उसकी अपनों के लिए क्या ज़िम्मेदारियाँ हैं, क्या हुकूक़ हैं, क्या फ़र्ज़ हैं। वह बस एक चीज़ जानता है, वह है पैसा कमाना और उस धुन में वह यह भी भूल जाता है कि उसे मरना भी है। अगर इस तजुर्बे पर ग़ौर फ़रमायें तो नतीजा निकालना आसान है। जब हम अपने बच्चे को दुनियाबी तालीम देने के लिए जी-जान एक किये हुए थे उसे अंग्रेज़ी स्कूलों में भेज कर उसकी सोच की बुनियाद में मग़रिबी तहज़ीब का बीज बो रहे थे, तो हम भी यह भूल गये थे कि हमारा मज़हब क्या है; हमने उस वक़्त यह नहीं सोचा था कि दुनियावी तालीम, मज़हबी या दीनी तालीम के बग़ैर बिल्कुल ऐसी है जैसे ख़ुशबू के कि बिना फूल; वह दिखने में तो खूबसूरत दिखता है लेकिन जब हम उसके पास जाते हैं तो हमें उसकी असलियत का एहसास होता है। ज़ाहिर है कि दुनियावी तालीम, तालीम न रहकर मुख़तलिफ़ शोबों में बटकर हुनर की शक्ल ले चुकी है वह इन्जनीयर, डाक्टर, साइंसदां या कोई भी पेशेवर तो बना सकती है लेकिन इन्सान को इन्सान नहीं बना सकती। मज़हबी तालीम ज़िन्दगी जीने के तरीके़ के साथ-साथ हमारे किरदार को पाक बनाती है हमें शऊर, बड़ों का अदब, अपनों के फ़र्ज और हुक़ूक़ अदा करने के अलावा तमाम बुराइयों से महफ़ूज़ रखती है। मेरी सोच दुनियाबी तालीम के खि़लाफ़ नहीं, लेकिन मज़हबी या दीनी तालीम के बग़ैर इसकी शिनाक़्त नहीं करती, क्योंकि ऐसी तालीम ऐसे पेशेवर बना रही है जो इन्सानियत से बहुत दूर हैं। ऐसी तालीम ऐसे डॉक्टर बना रही है, जो गुर्दे बेच रहे हैं; ऐसे इन्जनियर बना रही है; जो तमाम मौतों की वजह बन रहें हैं; ऐसे सियासतदां बना रही है, जो मुल्क को बेचना चाहते हैं, और इसके साथ-साथ ऐसे उस्ताद बना रही है जो इदारों और अपने दर्जो में जाना पसंद नहीं करते। ऐसी तालीम आबरूरेज़, क़ातिल, चोर, दलाल सब बनाती है जिसकी कई मिसाले आपके ज़ेहेन में तरोताज़ा ज़रूर हो गयी होंगी। अगर हम तमाम बातों को समझते हुए भी अपने-अपने मज़हबों से दूरी बनाये रखेंगे तो शायद हमारी आने वाली नस्लों को इन्सान नहीं कुछ और कहा जाय। कहते हैं देर कभी नहीं होती, ग़ल्ती का एहसास होने पर उसको सुधारने की शुरूआत आज और अभी से होना चाहिए। लेकिन आपके ज़ेहेन में कल से सुधरने का ख़्याल आया तो फिर यह भी समझ लीजिए कि कल कभी नहीं आता। इस बनावटी दौर में अगर इन्सानियत को ज़िन्दा रखना चाहते हैं तो अपने अपने मज़हबों से दिल लगाएं और अपने अपने मज़हबों की तालीम को नई नस्लों तक पहुचाएं जिससे कल आपको पछतावा न हो किसी को यह कहने का मौक़ा न मिले कि आप के बच्चो की तरबियत में कमी रह गयी।...
Posted on: Sun, 11 Aug 2013 14:20:00 +0000

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