नौरंगिया गोली कांड से उपजे कुछ मुद्दे नौरंगिया (बगहा) गोली कांड के खिलाफ व्यापक राजनितिक प्रतिवादों के दबाव में आकर सरकार द्वारा न्यायिक जाँच आयोग की घोषणा के बादशायद यह मुद्दा ठंडा पड़ जाय | जाँच ,मुआवजा , आश्रितों की नौकरी आदि निहायत जायज मांगों की शोर में थरुहट के कुछ बुनियादी मद्दे ओझल हो गए हैं| राज्य विभाजन के बाद बिहार में आदिवासियों की आबादी एक प्रतिशत से कम हो जाने से यह समुदाय ऐसे भी राजनितिक रूप से हाशिए पर चला गया है| सन 2003 में थारुओं को आदिवासी दर्जा . हाल के वर्षों में पडोसी नेपाल में ने बिरादर थारु जनों में नयी राजनितिक जाग्रति , विगत 5-6 वर्षों के दौरान बाल्मीकि टाइगर प्रोजेक्ट के सुदृढीकरण के नाम पर थारुओं के परम्परागत वनाधिकार का जबर्दस्त हनन , दोन क्षेत्र में सड़क का निर्माण नहीं होने देना , उनके रोजमर्रे के जीवन में पुलिस व वन प्रशासन का बढता हस्तक्षेप एवं अत्याचार उस पृष्ठभूमि का निर्माण करते हैं| जहां आज पूरा थरुहट किसी भी जोर-जुल्म के खिलाफ तुरत उठ खड़ा होता है| हाल के वर्षों में भारतीय थारु कल्याण महासंघ एवं उराँव महासभा के साझा नेतृत्व में आदिवासिओं ने जुझारू आंदोलन चलाए हैं| जिसमे दसियों हज़ार लोंगों का जंगल में घुस कर वनाधिकार के लिए जनता कानून लागू करना ,साजिश के तहत बगहा-2, रामनगर, गौनाहा और मैनाटाड प्रखंड के 152 आदिवासी बहुल राजस्व गांवों को वाल्मीकि टाइगर प्रोजेक्ट के बफर एरिया में शामिल करने के लिए ग्राम -सभा से प्रस्ताव पारित कराने के लिए जिला पदाधिकारी द्वारा पत्र निर्गत करने के साथ उसे पास करने के लिए उनके द्वारा नाजायज दबाव बनाना, , वन विभाग के पदाधिकारियों द्वारा सीधे सादे आदिवासियों पर जुल्म ढाने के खिलाफ गोलबंद हो कर कुख्यात कवलजीत सिंह की पिटाई, जंगल को घेरने की वन विभाग के कुत्सित प्रयास को विफल करना , रैयती भूमि पर वन विभाग द्वारा अतिक्रमण कर गाडे गए पिलड को उखाड कर अपना हक प्राप्त करना , दोन क्षेत्र में सडक के लिए आंदोलन , जंगली जानवरों द्वारा फसल क्षति का मुआवजा , वन अधिकार कानून 2006 को अमली जामा पहनाने के लिए आंदोलन आदि उल्लेखनीय है| ज्ञातव्य हो कि ये घटनाएँ तब हो रही है जब आदिवासियों को ऐतिहासिक अन्याय से मुक्ति के लिए केन्द्र सरकार ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता ) अधिनियम 2006 में आदिवासियों को व्यापक अधिकार प्रदान किया है, और यहाँ आलम यह है कि इस कानून को लागू करने वाली बुनियादी इकाई – ग्राम वन अधिकार समिति निर्धारित 300 गांवों में से सिर्फ 128 में हीं जिला प्रशासन बना पाई है वह भी कागजी तौर पर | इस पर भी तुका यह कि आज तक ग्राम वन अधिकार समिति के सदस्यों को आज तक प्रशासन द्वारा प्रशिक्षण नहीं दिया गया और ना हीं उनके साथ वनाधिकार कानून को लागू करने के लिए कोई बैठक की गई | उलटे भारत सरकार के जनजातीय कार्य एवं पंचायती राज मंत्रालय द्वारा 3 दिसम्बर 2012 को आयोजित राष्ट्रीय परामर्श कार्यशाला में वनाधिकार के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए बिहार सरकार के अनुसूचित जाति जनजाति कल्याण विभाग के सचिव द्वारा पॉवर पोवाईंट प्रजेंटेशन प्रस्तुत कर गलत बयानी की गई कि “ परम्परागत रूप से वन क्षेत्रों और उसके चारों तरफ रहने वाले ग्रामीण सामुदायिक वनाधिकार जैसे जलावन की लकड़ी , एम्.एफ. पी, (Miner forest produce) लघु वनोपज / चारा आदि का लाभ लेते आ रहें हैं| किसी भी तरह की शिकायत की स्थिति में 60 दिनों के भीतर शिकायतों का निवारण किया जायेगा | वहीँ पॉवर पोवाईंट प्रजेंटेशन में दावा किया गया है कि “अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता ) संशोधित नियम 2012” के मुताबिक मार्च 2013 तक वनाधिकार समितियों का पुनर्गठन कर लिया जायेगा और संशोधित वनाधिकार अधिनियम के अनुरूप नियमों तथा विनियमों को उपलब्ध करा दिया जायेगा| वहीँ सामुदायिक को सम्बंधित समुदायों द्वारा भरवाने हेतु पंचायत के कर्मचारियों को जुलाई 2013 तक प्रशिक्षित कर दिया जायेगा | लिहाजा , इस तरह की घटनाओं की पुनरावृति रोकने के लिए यह बेहद जरुरी है कि पुरे थरुहट में “अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता ) अधिनियम 2006” को फ़ौरन लागू किया जाय तथा “थरुहट विकास अभिकरण” (जो महज एक झुनझुना है) को “पेसा” कानून के अंतर्गत व्यापक आदिवासी प्रतिनिधित्व वाला एक स्वायत शासी निकाय बनाया जाय | हमेशा राजनितिक हथियार के चक्कर में “बंद” का आहवान कर इतिश्री करनेवालों को निश्चय ही एन मुद्दों को उठाना चाहिए , शायद तभी वे अपनी खोई जमीन प्राप्त कर सकते हैं| सुशील प्रसाद शशांक प्रवक्ता वनाधिकार मंच पश्चिम चम्पारण
Posted on: Wed, 03 Jul 2013 06:33:36 +0000